Tuesday, September 28, 2010

मंहगाई की आग

मंहगाई की जो लगी ,दुनिया भर में आग
दिन में तारे दिख रहे ,भूली गाना फाग
भूली गाना फाग, पेट में चूहें कूंदें
गूंगा बहरा तंत्र ,समूचा आँखें मूंदें
वैश्वीकरण बाज़ार ,कर रहा खूब कामाई
सबकी रोटी दाल ,लीलती है महगाई
[भोपाल:.२८.०९.१०]

Sunday, August 8, 2010

डॉक्टर आनंद के जनक छंद

सकल जगत है अनमना
चिंता का कारन बना
तापमान का उछलना
ताप ताव ऐसा तपा
बर्फ पिघल पानी बना
प्रकृति हो रही है खफा
घोर प्रदूषण बढ़ रहा
शुद्ध हवा पानी नहीं
जीवन घुल घुल मर रहा
पानी तल गहरा हुआ
दिखा रहे हैं झुनझुना
सर सरिता निर्झर कुआं
यह कैसा अंधेर है
गधे पजीरी खा रहे
कलियुग का यह फेर है
संसद पर हमला करे
सीना ताने रह रहा
फांसी से वो ना डरे
रूप पुजारी का धरो
जप माला छापा तिलक
हत्याएं सौ सौ करो
हुआ चलन संतान का
तोड़ रहे अनुवंध शुचि
रेशम से संवंध का


Thursday, June 10, 2010

माँ :संतानों के नाम

कितने माँ संकट सहे ,संतानों के नाम
पल पल पर पीती रहे ,सहनशक्ति के नाम
सहनशक्ति के नाम ,नशा देते हैं ऐसा
पी लेती विष घूँट ,भले हो सागर जैसा
चैन न ले दिनरात ,संजोती स्वर्णिम सपने
सबकी लिखे किताब ,चूमते तारे कितने ?
[भरूच:१०.०६.२०१०]

Wednesday, June 9, 2010

बरसेंगें कब मेंघ?

जब बादल बरसे नहीं ,लें जब तम्बू तान
पलपल बढ़ती उमस से ,सब जग हो हैरान
सब जग हो हैरान ,चैन ना पड़े किसी को
पूंछो जिसके हाल ,परेशानी है उसको
सबके सब तरबतर ,पूंछते हैं सबके सब
बरसें कब घन राज ,सांस राहत में हो जब
[
भरूच.०९.०५६.२०१०]

आंखमिचौनी

आंखमिचौनी भूलकर ,घन बरसे जब खूब
सौंधी सौंधी गंध से ,महकी धरती दूब
महकी धरती दूब ,ताप को लगा पलीता
पारें का मन शांत ,हाथ में थामे फीता
ताप हुआ बेज़ार ,शकल सब औनी पौनी
भूल गए घनराज ,खान की आँख मिचौनी
[
भरूच:०७.०६.२०१०]

Wednesday, May 5, 2010

सच कहता हूँ

सच कहता हूँ
सच सच सुनकर
लग जातीं हैं सबको मिर्चीं
सरे आम इज्ज़त लुटती हैं
चना मटर जैसी भुनती है
जन्मदायिनी जग की जननी
बिना मौत धनिया मरती है
जब जब मांगे
राहत होरी
बस्तों में बंध जाती अर्जी
वैश्वीकरण बजार उग रहा
दिन्दीन भ्रष्टाचार बढ़ रहा
जर ज़मीन के झंझट सारे
नहीं किसी को न्याय मिल रहा
राम न जाने
कब क्या होगा
सत्य धर्म की चले न मर्जी
कांक्रीट के जंगल उगते
वन उपवन घर आँगन जलते
घोर प्रदूषण पनप रहा है
बाढ़ प्रलय तूफ़ान मचलते
शेष रहेगा
पानी पानी
सकल विकास लगेगा फर्जी
भोपाल:१०.०४.२०१०]

Monday, April 26, 2010

कलियुग की रामकहानी

कौन सुनेगा
किसे सुनाऊं
इस कलियुग की रामकहानी
नर - नारी मशीन की छाँव
धरा -धाम पर धरें ना पाँव
चाँद सितारों तक जा पहुँचे
जपते जपते नीर का नाँव
कल के अचरज
सभी गिनाऊँ
रखना मुश्किल याद जबानी
अम्मा के हाथों की रोटी
सालन चटनी लगती खोटी
बाज़ारों की सड़ी गली भी
जितनी महगी उतनी मीठी
रेशम -रिश्ते
हुए उबाऊ
अपनेपन की लटी निशानी
चलता है अब सिक्का खोटा
शुद्ध हवा पानी का टोटा
वैश्वीकरण बाजारबाद नित
इधर उधर भाँजें सोंटा
किसको कैसे
गीत सिखाऊँ
अधर अधर पर खर -स्वर -पानी
[भोपाल:२६.०४.२०१०]




Thursday, April 15, 2010

आतंक का साया

चील गिद्ध कौवे मंडराते
लिए कफ़न के बस्ते
टिड्डी दल बन फसल चाटते
आतंकबादिए दस्ते
पलक झपकते ही बिछ जाती
लाशों पर जब लाशें
शकसंदेहों के घेरों से
निकल न पातीं फांसें
छाई रहती है दहशतगर्दी
सुबह शाम दोपहरी
आतंकबाद के सौदागर
बुनते चादर धुन्धरी
तंत्र मन्त्र हैरान
भय का तना वितान
नींद नहीं जब आए
कैसे मन मुस्काए?

कांक्रीट के जंगल बुनते
वनंउपवन की ठठरी
पञ्च तत्व हो गए विषैले
चिंतित दुनिया सबरी
तापमान की उछलकूद से
काँप उठा भूमंडल
प्रक्रतिनटी के तेवर तीखे
लिए विनाश कमंडल
वादों के दलदल में दुनिया
भटक गई है रस्ता
वैश्वीकरण बाजारबाद से
हुई उधारी खस्ता
बर्बादी आभूषण
भ्रष्टाचार-प्रदूषण
आतंकवाद बन छाए
कैसे मन मुस्काए ?



Tuesday, April 6, 2010

बेटा

सड़क किनारे लेटा है
नंग -धडंगा लेटा है
लगता मनमानी पीकर
bhookheen saansen letaa hai
मजबूरी पागलपन का
परिचय जग को देता है
सब संवेदनहीन हुए
नोटिस कोइ न लेता है
भूल गए हम सब कैसे
भारत माँ का बेटा है
[भोपाल:०५.०४.२०१०]

Tuesday, January 5, 2010

नये वर्ष की नई धूप

नए वर्ष की नई धूप में सबको साथ नहाना
गाँव शहर क बीच विषमता की दीवारें
गाँव शहर के बीच अडीं हैं ऊंची मीनारें
अर्थ विकास विषमता का विष घोल रहा
अर्थ तंत्र सारे गाँव का डोल रहा
अब विकास के समीकरण को नया बनाना होगा
नए वर्ष की धूप में सबको साथ नहाना होगा
आतंकवाद भ्रष्‍टाचारों में सारा जग पलता
आये दिन चौराहों पर जिन्‍दा जीवन जलता
भूखा पेट हाथ खाली हैं मन में युद्ध मचलाता
दुनिया का भविष्‍य खतरों के पंजों में जकड़ा लगता
मानव को सच्‍च्‍े जीवन का पाठ पढ़ाना होगा
नये वर्ष की नई धूप में सबको साथ नहाना होगा
प्रकृति साधनों का अति दोहन खतरा उगल रहा
भीड़ भाड़ वाहन कोलाहल शांति निगल रहा
गंगा यमुना नील वोल्‍गा का जल हुआ विषैला
धुआं उगलता विष जहरीला जो चिमनी से फैला
विषम प्रदूषण की ज्‍वाला को आज बुझाना होगा
नये वर्ष की नई धूप में सबको साथ नहाना होगा।