Wednesday, May 5, 2010

सच कहता हूँ

सच कहता हूँ
सच सच सुनकर
लग जातीं हैं सबको मिर्चीं
सरे आम इज्ज़त लुटती हैं
चना मटर जैसी भुनती है
जन्मदायिनी जग की जननी
बिना मौत धनिया मरती है
जब जब मांगे
राहत होरी
बस्तों में बंध जाती अर्जी
वैश्वीकरण बजार उग रहा
दिन्दीन भ्रष्टाचार बढ़ रहा
जर ज़मीन के झंझट सारे
नहीं किसी को न्याय मिल रहा
राम न जाने
कब क्या होगा
सत्य धर्म की चले न मर्जी
कांक्रीट के जंगल उगते
वन उपवन घर आँगन जलते
घोर प्रदूषण पनप रहा है
बाढ़ प्रलय तूफ़ान मचलते
शेष रहेगा
पानी पानी
सकल विकास लगेगा फर्जी
भोपाल:१०.०४.२०१०]