Wednesday, December 28, 2011

कनाडा में बर्फ की बर्षा

                                     कनाडा में बर्फ की बर्षा
बर्फ बरसती चारों ओर
बिछी सफ़ेद दरी सब ओर    
हुई बोलती सबकी बंद
सन्नाटा छाया सब ओर

बर्फ भांजती ऐसे डंडे
भूल गया सूरज हथकंडे
बर्फ सर्फ़ से धोकर सारे
फहराती है अपने झंडे

बर्फ ने अपनी तानी मूंछ
बनकर हनुमान की पूंछ
पूंछ छिपाकर सूरज भागा
करके अपनी नीची मूंछ

छाया चारों ओर अन्धेरा
जाने खान छिप गया सवेरा
बर्फ बर्फ सब ओर बर्फ का
लगा हुआ है गहरा पहरा

पग पग पर क्या बिखरी शक्कर ?
इतनी कहाँ से आई शक्कर ?
समझ न लेना शक्कर भैया !
बर्फ की बर्षा का घनचक्कर

सर्फ़ घुला लहराता सागर
सीमाहीन बर्फ की चादर
मृग तृष्णा सा मायाजाल
हक्का बक्का हैं बादर

ढोल बजाना भूले बादल
गुब्बारे से फूले बादल
ठंडी हवा ने भांजे डंडे
सर्फ़ धुले सब बरसे बादल

अकड़न तड़पन भूली बिजली
गर्दन पर जाड़े की सूली
सिलकर ओंठ छिप गयी घर में
हो जैसे बस गाजर मूली

भोर हुआ रवि किरणें आईं
बर्फ देख करके चकराईं
गर्मीं के देकर इंजेक्शन
सर्दी का आतंक भगाईं

कल सारे दिन बर्फ गिरी
आज रुपहली धूप खिली
कल का क्या मौसम होगा
नहीं कहीं से खबर मिली

चांदी जैसा रूप रुपहला
चारों ओर दूध ज्यों फैला
ना चांदी न ढूध काक सागर
बर्फ बर्फ का रेलमपेला

बर्फ जमाये अपने पाँव
ठंडी हवा बताती दांव
देख देख हम हक्का बक्का
याद आ रहे अपने गाँव
[सैंट जॉन :कनाडा :२३.११.२०११]    


Tuesday, September 28, 2010

मंहगाई की आग

मंहगाई की जो लगी ,दुनिया भर में आग
दिन में तारे दिख रहे ,भूली गाना फाग
भूली गाना फाग, पेट में चूहें कूंदें
गूंगा बहरा तंत्र ,समूचा आँखें मूंदें
वैश्वीकरण बाज़ार ,कर रहा खूब कामाई
सबकी रोटी दाल ,लीलती है महगाई
[भोपाल:.२८.०९.१०]

Sunday, August 8, 2010

डॉक्टर आनंद के जनक छंद

सकल जगत है अनमना
चिंता का कारन बना
तापमान का उछलना
ताप ताव ऐसा तपा
बर्फ पिघल पानी बना
प्रकृति हो रही है खफा
घोर प्रदूषण बढ़ रहा
शुद्ध हवा पानी नहीं
जीवन घुल घुल मर रहा
पानी तल गहरा हुआ
दिखा रहे हैं झुनझुना
सर सरिता निर्झर कुआं
यह कैसा अंधेर है
गधे पजीरी खा रहे
कलियुग का यह फेर है
संसद पर हमला करे
सीना ताने रह रहा
फांसी से वो ना डरे
रूप पुजारी का धरो
जप माला छापा तिलक
हत्याएं सौ सौ करो
हुआ चलन संतान का
तोड़ रहे अनुवंध शुचि
रेशम से संवंध का


Thursday, June 10, 2010

माँ :संतानों के नाम

कितने माँ संकट सहे ,संतानों के नाम
पल पल पर पीती रहे ,सहनशक्ति के नाम
सहनशक्ति के नाम ,नशा देते हैं ऐसा
पी लेती विष घूँट ,भले हो सागर जैसा
चैन न ले दिनरात ,संजोती स्वर्णिम सपने
सबकी लिखे किताब ,चूमते तारे कितने ?
[भरूच:१०.०६.२०१०]

Wednesday, June 9, 2010

बरसेंगें कब मेंघ?

जब बादल बरसे नहीं ,लें जब तम्बू तान
पलपल बढ़ती उमस से ,सब जग हो हैरान
सब जग हो हैरान ,चैन ना पड़े किसी को
पूंछो जिसके हाल ,परेशानी है उसको
सबके सब तरबतर ,पूंछते हैं सबके सब
बरसें कब घन राज ,सांस राहत में हो जब
[
भरूच.०९.०५६.२०१०]

आंखमिचौनी

आंखमिचौनी भूलकर ,घन बरसे जब खूब
सौंधी सौंधी गंध से ,महकी धरती दूब
महकी धरती दूब ,ताप को लगा पलीता
पारें का मन शांत ,हाथ में थामे फीता
ताप हुआ बेज़ार ,शकल सब औनी पौनी
भूल गए घनराज ,खान की आँख मिचौनी
[
भरूच:०७.०६.२०१०]

Wednesday, May 5, 2010

सच कहता हूँ

सच कहता हूँ
सच सच सुनकर
लग जातीं हैं सबको मिर्चीं
सरे आम इज्ज़त लुटती हैं
चना मटर जैसी भुनती है
जन्मदायिनी जग की जननी
बिना मौत धनिया मरती है
जब जब मांगे
राहत होरी
बस्तों में बंध जाती अर्जी
वैश्वीकरण बजार उग रहा
दिन्दीन भ्रष्टाचार बढ़ रहा
जर ज़मीन के झंझट सारे
नहीं किसी को न्याय मिल रहा
राम न जाने
कब क्या होगा
सत्य धर्म की चले न मर्जी
कांक्रीट के जंगल उगते
वन उपवन घर आँगन जलते
घोर प्रदूषण पनप रहा है
बाढ़ प्रलय तूफ़ान मचलते
शेष रहेगा
पानी पानी
सकल विकास लगेगा फर्जी
भोपाल:१०.०४.२०१०]